Thursday, 26 May 2016

अधर्म का साथ - विवेक का अंत


 

गुरुकृपा , देव दर्शन , नित्य प्रभु ध्यान, सद्कर्मो और सुसंगत से विवेक की प्राप्ति होती है जिससे  अच्छे और बुरे के बीच का  फर्क समझ आता है, साथ ही प्राप्ति होती है सुख और मन की शांति की , विवेक की कमी से कई बार हम अपने आप को कुतर्को से समझा कर गलत राह पर जाते है जो अंत में पाप का भागी बनाती है और जैसे ही हमारा संचित पुण्य समाप्त होता है हम दण्ड के भागी बनते है , ठीक वैसे ही जैसे बैंक कहते का ओपनिंग बैलेंस समाप्त होते ही खाता बंद होने की कगार पर आ जाता है , और नियमित सद्कर्मो से बैंक में नित्य धन संचित  होता है। 

कुछ समय की कुसंगत , अधर्म से कमाया धन , अधर्मी के हाथो ग्रहण किया तामसिक भोजन और अनैतिक कार्य कैसे विवेक को नष्ट करता है , पढ़िए एक लघु कथा ?

विवेक का अंत

एक ब्राह्मण दरिद्रता से बहुत दुखी होकर राजा के यहां धन याचना करने के लिए चल पड़ा।  कई दिन की यात्रा करके राजधानी पहुंचा और राजमहल में प्रवेश करने की चेष्टा करने लगा, उस नगर का राजा बहुत चतुर था. वह सिर्फ सुपात्रों को दान देता था,  याचक सुपात्र है या कुपात्र इसकी परीक्षा होती थी,  परीक्षा के लिए राजमहल के चारों दरवाजों पर उसने समुचित व्यवस्था कर रखी थी।  Click here to read other blogs
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ब्राह्मण ने महल के पहले दरवाजे में प्रवेश किया ही था कि एक वेश्या निकल कर सामने आई. उसने राजमहल में प्रवेश करने का कारण ब्राह्मण से पूछा, ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि मैं राजा से धन याचना के लिए आया हूं,  इसलिए मुझे राजा से मिलना आवश्यक है ताकि कुछ धन प्राप्तकर अपने परिवार का गुजारा कर लूं। 
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वेश्या ने कहा- महोदय आप राजा के पास धन मांगने जरूर जाएं पर इस दरवाजे पर तो मेरा अधिकार है. मैं अभी काम पीड़ित हूं,  आप यहां से अन्दर तभी जा सकते हैं जब मेरे साथ समय गुजार लें, अन्यथा दूसरे दरवाजे से जाइए। 
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ब्राह्मण को उस महिला की शर्त स्वीकार न हुई,  अधर्म का आचरण करने की अपेक्षा दूसरे द्वार से जाना उन्हें पसंद आया।   वहां से लौट आये और दूसरे दरवाजे पर जाकर प्रवेश करने लगे।
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दो ही कदम भीतर पड़े होंगे कि एक प्रहरी सामने आया।   उसने कहा इस दरवाजे पर महल के मुख्य रक्षक का अधिकार है, यहां वही प्रवेश कर सकता है जो हमारे स्वामी से मित्रता कर ले , हमारे स्वामी को मांसाहार अतिप्रिय है,  भोजन का समय भी हो गया है इसलिए पहले आप भोजन कर लें फिर प्रसन्नता पूर्वक भीतर जा सकते हैं, आज भोजन में हिरण का मांस बना है।  .
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ब्राह्मण ने कहा कि मैं मांसाहार नहीं कर सकता, यह अनुचित  और अधर्म है,  प्रहरी ने साफ-साफ बता दिया कि फिर आपको इस दरवाजे से जाने की अनुमति नहीं मिल सकती,  किसी और दरवाजे से होकर महल में जाने का प्रयास कीजिए।  Click here to read other blogs
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तीसरे दरवाजे में प्रवेश करने की तैयारी कर ही रहा था कि वहां कुछ लोग मदिरा और प्याले लिए बैठे मदिरा पी रहे थे. ब्राह्मण उन्हें अनदेखा करके घुसने लगा तो एक प्रहरी आया और कहा थोड़ा हमारे साथ मद्य पीयो तभी भीतर जा सकते हो, यह दरवाजे सिर्फ उनके लिए है जो मदिरापान करते हैं, ब्राह्मण ने मद्यपान नहीं किया और उलटे पांव चौथे दरवाजे की ओर चल दिया। 
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चौथे दरवाजे पर पहुंचकर ब्राह्मण ने देखा कि वहां जुआ हो रहा है।   जो लोग जुआ खेलते हैं वे ही भीतर घुस पाते हैं,  जुआ खेलना भी धर्म विरुद्ध है, ब्राह्मण बड़े सोच-विचार में पड़ा,  अब किस तरह भीतर प्रवेश हो, चारों दरवाजों पर धर्म विरोधी शर्तें हैं. पैसे की मुझे बहुत जरूरत है इसलिए भीतर प्रवेश करना भी जरूरी है। 
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एक ओर धर्म था तो दूसरी ओर धन. दोनों के बीच घमासान युद्ध उसके मस्तिष्क में होने लगा,  ब्राह्मण जरा सा फिसला , उसने सोचा जुआ छोटा पाप है, इसको थोड़ा सा कर लें तो तनिक सा पाप होगा।  मेरे पास एक रुपया बचा है,  क्यों न इस रुपये से जुआ खेल लूं और भीतर प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाऊं। 
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विचारों को विश्वास रूप में बदलते देर न लगी,  ब्राह्मण जुआ खेलने लगा, एक रुपये के दो हुए, दो के चार, चार के आठ, जीत पर जीत होने लगी।   ब्राह्मण राजा के पास जाना भूल गया और अब जुआ खेलने लगा।   जीत पर जीत होने लगी। 
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शाम तक हजारों रुपयों का ढेर जमा हो गया,  जुआ बन्द हुआ, ब्राह्मण ने रुपयों की गठरी बांध ली।   दिन भर से खाया कुछ न था ,  भूख जोर से लग रही थी,  पास में कोई भोजन की दुकान न थी। 
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ब्राह्मण ने सोचा रात का समय है कौन देखता है चलकर दूसरे दरवाजे पर मांस का भोजन मिलता है वही क्यों न खा लिया जाए ? स्वादिष्ट भोजन मिलता है और पैसा भी खर्च नहीं होता, दोहरा लाभ है।
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जरा सा पाप करने में कुछ हर्ज नहीं , मैं तो लोगों के पाप के प्रायश्चित कराता हूं , फिर अपनी क्या चिंता है, कर लेंगे कुछ न कुछ उपाय . ब्राह्मण ने मांस मिश्रित स्वादिष्ट भोजन को छककर खाया। 
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अस्वाभाविक भोजन को पचाने के लिए अस्वाभाविक पाचक पदार्थों की जरूरत पड़ती है,  तामसी, विकृत भोजन करने वाले अक्सर पान, बीड़ी, शराब की शरण लिया करते हैं।   कभी मांस खाया न था, इसलिए पेट में जाकर मांस अपना करतब दिखाने लगा।  Click here to read other blogs
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अब उन्हें मद्यपान की आवश्यकता महसूस हुई. आगे के दरवाजे की ओर चले और मदिरा की कई प्यालियां चढ़ाई,  अब वह तीन प्रकार के नशे में थे. धन काफी था साथ में सो धन का नशा, मांसाहार का नशा और मदिरा भी आ गई थी.
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कंचन के बाद कुछ का, सुरा के बाद सुन्दरी का, ध्यान आना स्वाभाविक है,  ऊपर  अधर्म  से कमाए धन और तामसिक भोजन ने विवेक को पूरी तरह हर लिया था।  पहले दरवाजे पर पहुंचे और वेश्या के यहां जा विराजे, वेश्या ने उन्हें संतुष्ट किया और पुरस्कार स्वरूप जुए में जीता हुआ सारा धन ले लिया। 
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एक पूरा दिन चारों द्वारों पर व्यतीत करके दूसरे दिन प्रातःकाल ब्राह्मण महोदय उठे, उस दुष्ट महिला ने उन्हें घृणा के साथ देखा और शीघ्र घर से निकाल देने के लिए अपने नौकरों को आदेश दिया और  उन्हें घसीटकर घर से बाहर कर दिया गया। 
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राजा को सारी सूचना पहुंच चुकी थी , ब्राह्मण फिर चारों दरवाजों पर गया और सब जगह खुद ही कहा कि वह शर्तें पूरी करने के लिए तैयार है प्रवेश करने दो पर आज वहां शर्तों के साथ भी कोई अंदर जाने देने को राजी न हुआ .
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सब जगह से उन्हें दुत्कार दिया गया. ब्राह्मण को न माया मिली न राम. “जरा सा” पाप करने में कोई बड़ी हानि नहीं है, यही समझने की भूल में उसने धर्म और धन दोनों गंवा दिए, एक छोटी सी गलती से उसका विवेक  नष्ट हुआ और वो अपने आप पाप की खाई में लुढ़कता हुआ उसमे समा गया।Click here to read other blogs

ॐ साईं राम

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